गीली पलकों से बरसाया पुष्पों-सा हँस-हँस मैं हूँ तुहिन कण ३
3.
बहुत सी बरफ (तुहिन कण) उसके रेशमी, घुंघराले, सुनहरे बालों पर पड़ रही थी।
4.
अक्षरों में ढल गये हैं पुष्पपत्रों के तुहिन कण और लगता काव्य, बन कर एक सरिता बह रहा है शब्दों की सरिता ही तो है जो बह रही है.
5.
शायद कहीं.... फूलों पर शबनम की बूँद बनकर, या फ़िर दूब की नोक पर तुहिन कण सी, चमकुंगी केवल सुबह-सवेरे । लेकिन....... कौन जानेगा मुझे...? पहचानेगा मुझे...? कि मैं वही मरू भूमि में गिर पड़ी एक बूँद हूँ ।
6.
शब्द से बंधने लगी है एक सावन की बदरिया राग देकर तान में जाती मुझे गाती कजरिया कह रही है पैंजनी यमुना किनारे की कथा को बाँसुरी से कर रहा लगता इशारे कुछ संवरिया अक्षरों में ढल गये हैं पुष्पपत्रों के तुहिन कण और लगता काव्य, बन कर एक सरिता बह रहा है
7.
रवि-किरण जिसका सरस तल छू न पाई युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से! पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो, हो उठे मृदु श्याम वर्णी, वही वन की नेह भीगी धरा, ओढे है अँगारे! जल रही है घास दूर्वायें कि जिनको तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे.
8.
सोच के कितने सारे वृक्ष लगाए शब्द-बीज भी बोए जीवन को धनधान्य भरा बनाने में कठिन से कठिन रास्ते अपनाएं वीहड़, सघन जंगल के बीच, सागर के किनारे, नदी की उच्छ्वाल, चंचल, संकुल धारा के साथ चले जब समय के कदली पत्र पर शून्या काश से गिरते मोतियों जैसे तुहिन कण ले मैंने नए-नए आत्मबोधी वृक्ष लगा ए....
9.
विचार ऐसे है जैसे किसी ने पानी पे लकीर खीची हो, बना नहीं की मिट गया, और भाव ऐसे है मोनो किसी ने रेत के महल बनायें हो, खूबसूरत, दिखने में एकदम पत्थर से बना प्रतीत होता हो, पर लहर के आते ही सब लीप-पुत के बराबर ……… भाव कुमुदनी के पंखुड़ियों पर टीकी तुहिन कण से ज्यादा नहीं है ….